Natasha

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राजा की रानी

मैं खूब समझता हूँ कि जो लोग कठोर आलोचक हैं वे मेरी आत्मकथा में इस स्थान पर अधीर होकर बोल उठेंगे, “इतना फुलाकर- अतिरंजित करके आखिर, बाबू, तुम कहना क्या चाहते हो? अच्छी तरह स्पष्ट करके ही कह दो न कि वह कौन है? आज सोकर उठते ही प्यारी का मुँह याद करके तुम व्यथित हो उठे थे- यही न? जिसे मन के दरवाजे पर से ही झाड़ू मारकर बिदा कर देते थे आज उसे ही बुलाकर घर में बसाना चाहते हो- यही न? तो ठीक है। यदि यह सत्य है, तो इसके बीच में तुम अपनी अन्नदा जीजी का नाम मत लो। क्योंकि, तुम चाहे जितनी बातें, चाहे जिस तरह बना-सजाकर क्यों न कहो, हम लोग मानव-चरित्र खूब समझते हैं। हम यह जोर देकर कह सकते हैं कि सती-साध्वीा का आदर्श तुम्हारे मन के भीतर स्थायी नहीं हुआ, उसे अपनी सारी शक्ति लगाकर तुम कभी नहीं ग्रहण कर सके। यदि कर सके होते तो इस मिथ्या में अपने को न भुला सकते।”

यह ठीक है। किन्तु अब और तर्क नहीं करूँगा। मैंने समझ लिया है कि मनुष्य अन्त तक किसी तरह भी अपना पूरा-पूरा परिचय नहीं पाता। वह जो नहीं है, वही अपने को समझ बैठता है और बाहर प्रचार करके केवल विडम्बना की सृष्टि करता है और जो दण्ड इसका भोगना पड़ता है, वह भी बिल्कुेल हलका नहीं होता। किन्तु रहने दो, मैं तो खुद जानता हूँ कि किस नारी के आदर्श पर इतने दिन क्या बात 'प्रीच' (उपदेश) करता फिरा हूँ। इसलिए, मेरी इस दुर्गति के इतिहास पर लोग जब कहेंगे कि श्रीकान्त 'हम्बग-हिप्पोदक्रेट' है, तब चुपचाप मुझे सुन ही लेना पड़ेगा। फिर भी मैं 'हिप्पोेक्रेट' नहीं था; 'हम्बग' करने का मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव सिर्फ इतना ही है कि मुझमें जो दुर्बलता अपने आपको छुपाए हुई थी उसकी खबर मैंने नहीं रक्खी। आज जब वह, समय पाकर, सिर उठाकर खड़ी हो गयी और जब उसने अपने ही समान और भी एक दुर्बलता को सादर आह्नान करके एकबारगी अपने भीतर बिठा लिया, तब असह्य विस्म।य से मेरी ऑंखों में से ऑंसू गिर पड़े; किन्तु 'जा' कहकर उसे बिदा करते भी मुझसे नहीं बन पड़ा। यह भी मैं जानता हूँ कि आज लज्जा के मारे अपना मुँह छिपाने के लिए मेरे पास कोई स्थान नहीं है; किन्तु हृदय का कोना-कोना पुलक से आज परिपूर्ण हो उठा है! नुकसान जो होना हो सो हो, हृदय तो इसका त्याग करना नहीं चाहता!

“बाबू साहब!” राजा का नौकर आ पहुँचा। शय्या पर मैं सीधा होकर बैठ गया। उसने आदरपूर्वक कहा, “कुमार साहब तथा और भी बहुत से लोग आपकी गत रात्रि की कहानी सुनने के लिए आपके आने की राह देख रहे हैं।”

मैंने पूछा, “उन्हें मालूम कैसे हुआ?” बैरा बोला, “तम्बू के दरबान ने बतलाया है कि आप रात के अन्त में वापिस लौट आए हैं।”

हाथ-मुँह धो कपड़े बदल, जैसे ही मैं बड़े तम्बू के अन्दर गया कि सब लोगों ने एक साथ शोर मचा दिया। एक ही साथ मानो एक लाख प्रश्न हो गये। मैंने देखा कि कल के वे वृद्ध महाशय भी वहाँ हैं और एक तरफ प्यारी भी अपने दल-बल को लेकर चुपचाप बैठी है। रोज के समान आज उससे चार ऑंखें नहीं हुईं। मानो वह जान-बूझकर ही और किसी तरफ ऑंखें फिराए बैठी थी।

आकुल सवालों की लहर के शान्त होते ही मैंने जवाब देना शुरू किया। कुमारजी बोले, “धन्य है तुम्हारा साहस, श्रीकान्त। कितनी रात को वहाँ पहुँचे थे?”

“बारह और एक के बीच।”

वृद्ध महाशय बोले, “घोर अमावस्या! साढ़े ग्यारह बजे के बाद अमावस पड़ी थी।”

चारों तरफ से अचरज सूचक ध्ववनि उठकर क्रमश: शान्त होते ही कुमारजी ने फिर प्रश्न किया, “उसके बाद क्या देखा?”

मैं बोला, “दूर तक फैले हुए हाड़-पिंजर और खोपड़ियाँ।”

कुमारजी बोले, “उफ, कैसा भयंकर साहस है! श्मशान के भीतर गये थे या बाहर खड़े रहे थे?”

मैं बोला, “भीतर जाकर एक बालू के ढूह पर जाकर बैठ गया था।”

“उसके बाद- उसके बाद? बैठकर क्या देखा?”

“बालू के टीले साँय-साँय कर रहे हैं।”

“और?”

“काँस के झुरमुट और सेमर के वृक्ष।”

“और?”

“नदी का पानी।”

कुमारजी अधीर होकर बोले, “यह सब तो जानता हूँ जी! पूछता हूँ कि वह सब कुछ...”

मैं हँस पड़ा और बोला, “और दो-एक बड़े चमगीदड़ सिर के ऊपर से उड़कर जाते हुए देखे थे।”

वृद्ध महाशय ने स्वयं उस समय आगे बढ़कर पूछा, “और कुछ नहीं देखा?” मैं बोला, “नहीं।”

उत्तर सुनकर तम्बू-भर के आदमी मानो निराश हो गये। उस समय वृद्ध महाशय एकाएक क्रूद्ध हो उठे, “ऐसा कभी हो नहीं सकता। आप गये ही नहीं।” उनके गुस्से को देखकर मैंने सिर्फ हँस दिया। क्योंकि बात ही गुस्से होने की थी। कुमारजी मेरा हाथ दबाकर मिन्नत भरे स्वर से बोले, “तुम्हें कसम है श्रीकान्त, क्या-क्या देखा, सच-सच कह दो?”

“सच ही कहता हूँ, कुछ नहीं देखा।”

“कितनी देर ठहरे वहाँ पर?”

“तीनेक घण्टे।”

“अच्छा, देखा नहीं, कुछ सुना भी नहीं?”

“सुना।”

क्षण-भर में ही सबका मुँह उत्साह से प्रदीप्त हो उठा। क्या सुना, उसे सुनने के लिए लोग कुछ और भी आगे सरक आए। तब मैंने कहना शुरू किया कि किस तरह रास्ते के ऊपर एक रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर उड़ गया, किस तरह बच्चे की सी आवाज में एक पक्षी के बच्चे ने सेमर के वृक्ष पर रिरिया-रिरिया कर रोना शुरू कर दिया, किस तरह एकाएक ऑंधी उठी और मृत मनुष्यों की खोपड़ियाँ दीर्घ श्वास छोड़ने लगीं और सबके अन्त में किस तरह मानो कोई मेरे पीछे खड़ा होकर लगातार बरफ सरीखी ठण्डी साँस दाहिने कान पर छोड़ने लगा। मेरा कथन समाप्त हो गया किन्तु देर तक किसी के मुँह से एक भी शब्द बाहर न निकला। सारा तम्बू मानो सन्न हो रहा। अन्त में वह वृद्ध व्यक्ति एक लम्बी उसास छोड़कर मेरे कन्धों पर एक हाथ रखकर, धीरे-धीरे बोला, “बाबूजी, आप सचमुच ही ब्राह्मण के बच्चे हैं, इसीलिए कल अपनी जान लिये लौट आए। नहीं तो और कोई जिन्दा नहीं लौट सकता था। किन्तु, आज से इस बुङ्ढे की कसम है बाबूजी, फिर कभी ऐसा दु:साहस न कीजिएगा। आपके माँ-बाप के चरणों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम- केवल उन्हीं के पुण्य-प्रताप से आप बच गये हैं।” इतना कहकर उसने झोंक में आकर चट से मेरे पैर छू लिये।

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